अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मध्य एशिया से अमेरिका की वापसी के क्‍या हैं मायने

अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से वापसी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए एक ऐतिहासिक दौर है। लंबे समय से चली आ रही एक ध्रुवीय व्यवस्था में ‘विश्व शांति’ और ‘मानवाधिकार’ की सुरक्षा के लिए अमेरिका द्वारा एकतरफा सैन्य कार्रवाई ने विश्व व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) में कमोबेश स्थायित्व बना रखा था। तालिबान की सत्ता में वापसी ने वर्ल्ड ऑर्डर के इस स्थायित्व को चुनौती दी है।

वैश्विक परिस्थितियों के लिहाज से देखा जाए तो मध्य एशिया वह ऐतिहासिक क्षेत्र रहा है जो आमतौर पर यह निर्धारित करता है कि दुनिया को कौन नियंत्रित करेगा। एक ऐसा क्षेत्र जिसके लिए अमेरिका ने पूर्व सोवियत संघ के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लड़ाई लड़ी थी। देखा जाए तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘महाशक्ति’ को मुख्यत: दो बिंदुओं के आधार पर पारिभाषित किया जाता है। पहला, महाशक्ति वह है जिसका ‘वैश्विक’ प्रभाव होता है और उसका आधिपत्य दुनिया के हर कोने में हो। दुनिया के अन्य देश इस महाशक्ति को मान्यता भी देते हों। दूसरा, जो दुनिया के हर क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखता हो। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपने इस आधिपत्य को दुनिया के हर क्षेत्र में बनाए रखा। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं था, जहां अमेरिकी सेना की उपस्थिति नहीं थी।

सोवियत संघ ने भी कमोबेश यही किया। सोवियत संघ के पतन के बाद रूस एकध्रुवीय राजनीति के उदय को नहीं रोक सका, इसका कारण अमेरिका की वैश्विक उपस्थिति से मेल खाने में रूस की असमर्थता थी। एक अनुमान के अनुसार रूस, फ्रांस और ब्रिटेन द्वारा संयुक्त रूप से बनाए गए लगभग 30 ठिकानों की तुलना में आज अकेले अमेरिका के पास दुनियाभर में विभिन्न प्रकार के करीब 800 विदेशी सैन्य ठिकाने हैं।

वर्ष 2001 में न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर ऐतिहासिक आतंकी हमले की घटना के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने अभियान का समर्थन हासिल करने के लिए मध्य एशिया में कई सैनिक अड्डे बनाए थे। उजबेकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति ने अमेरिका के साथ नई साङोदारी को इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ अपने घरेलू अभियान को वैध बनाने के अवसर के रूप में देखा। किíगस्तान में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति ने वहां के राष्ट्रपति को अंतरराष्ट्रीय वैधता प्रदान करने में मदद की।

हालांकि अमेरिकी समर्थन का उद्देश्य मध्य एशिया के देशों को विदेशी सहायता पहुंचाना भी था। लक्ष्य स्थानीय आतंक विरोधी कार्यक्रमों, नशीली दवाओं के प्रयासों और सीमा सुरक्षा को मजबूत बनाना था। चीन और रूस ने भी अमेरिका के मध्य एशिया में सैन्य दखल को स्वीकार कर लिया। रूस ने अमेरिकी साङोदारी को अपने लिए एक ऐसे अवसर के रूप में देखा जिससे वह स्वयं को एक महत्वपूर्ण वैश्विक देश और क्षेत्रीय वार्ताकार के रूप में स्थापित कर सके। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में मध्य एशिया में अमेरिका ने सैन्य विस्तार करते हुए तालिबान को खदेड़ दिया। क्षेत्रीय उपस्थिति के विस्तार के साथ सुरक्षा साङोदारी की उसने एक नई श्रृंखला बनाई। अमेरिका के लिए मध्य एशिया में यह एक स्वíणम युग था।

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी से ऐसी स्थिति शायद पहली बार उत्पन्न हुई है जिसमें पूरे मध्य एशिया में अमेरिका की कोई प्रत्यक्ष सैनिक उपस्थिति नहीं है। एक महाशक्ति के रूप में अमेरिका मध्य एशिया जैसे विशाल और महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपनी उपस्थिति और सक्रियता को शून्य क्यों करना चाहता है? मध्य एशिया में विशाल खनिज और हाइड्रोकार्बन संसाधन हैं। अफगानिस्तान की चीन से भौगोलिक निकटता और दक्षिण, मध्य व पश्चिम एशिया के लिए महत्वपूर्ण भू-रणनीतिक स्थान किसी भी महाशक्ति के लिए वहां प्रत्यक्ष उपस्थिति को आवश्यक बनाता है। बावजूद इसके अमेरिका मध्य एशिया के परित्याग को लेकर अडिग है। वापसी के संभावित कारणों में अफगान में दो दशकों की उपस्थिति में दो खरब डालर का खर्च और करीब 2400 सैनिकों के हताहत का हवाला दिया जा रहा है, परंतु जिस क्षेत्र से अमेरिका जा रहा है उसकी तुलना इन कारणों के समक्ष कुछ भी नहीं है।

हालांकि मध्य एशिया में अमेरिका अपने सहयोगियों को बहुत पहले से खोता आ रहा है। वैसे पाकिस्तान इस क्षेत्र में अमेरिका का सबसे बड़ा सहयोगी रहा, लेकिन धीरे-धीरे वह अमेरिका के प्रतिस्पर्धी चीन का सहयोगी बन गया। पाकिस्तान के अधिकांश सैन्य ठिकानों तक अमेरिका की प्रत्यक्ष या परोक्ष पहुंच थी। परंतु अफगानिस्तान से वापसी के दौरान अमेरिकी सेना के अस्थायी ठहराव ने पाकिस्तान में राजनीतिक विवाद को जन्म दिया, लिहाजा पाकिस्तान की सरकार ने बयान दिया कि अमेरिकी सेना की देश में मौजूदगी अस्थायी है।

मध्य एशिया समेत पूर्व सोवियत गणराज्यों में अमेरिका की सैन्य उपस्थिति अब नहीं है और इस बात की भी बहुत कम संभावना है कि इनमें से कोई भी देश निकट भविष्य में अमेरिकी सैनिकों की मेजबानी करेगा। अमेरिका का उजबेकिस्तान में सैन्य अड्डा 2005 में और किíगस्तान का सैन्य अड्डा 2014 में बंद हो गया। वर्ष 2001 में गठित शंघाई सहयोग संगठन के माध्यम से रूस-चीन गठबंधन और चीन द्वारा किए गए आíथक निवेश ने बीजिंग की स्थिति को मजबूत बना दिया है।

आखिर क्या कारण हो सकता है कि अमेरिकी नीति निर्माताओं ने इतनी जल्दबाजी में अफगानिस्तान में अपना सैन्य अड्डा छोड़ दिया? जाहिर है, अमेरिका मध्य एशिया में कतर से अपने सैन्य संचालन को नियंत्रित करने की कोशिश करेगा। तकनीकी प्रगति और दूरस्थ सैन्य अभियानों की सटीकता में वृद्धि के बावजूद अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में तालिबान को शिकस्त नहीं दे सकी तो यह सोचना भी मूर्खता होगी कि अब वह दूर कतर से ऐसा करने में सक्षम होंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published.