सस्ती बिजली का महंगा सच, विद्युत को लेकर हो रही सियासत से राज्य को पहुंच रहा नुकसान

पंजाब में बिजली का मुद्दा इन दिनों हर पार्टी के नेता की जुबां पर है। विपक्षी दल ही नहीं, सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू भी तीनों निजी थर्मल प्लांटों के साथ प्रदेश सरकार द्वारा किए गए बिजली खरीद समझौतों को रद करने की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह तीन महीने पहले तक यह कहते रहे कि समझौतों को रद नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे प्रदेश में भावी निवेश पर बुरा असर पड़ सकता है। हालांकि अब उन्होंने भी तीनों थर्मल प्लांटों के साथ किए गए करार को रद करने के लिए नोटिस जारी कर दिया है।

आखिर इस हाय-तौबा की वजह क्या है? इसके लिए हमें तीन अलग-अलग स्थितियों को समझना पड़ेगा। पहली, साल 2006 के मई महीने में बिजली की भारी कमी के कारण तत्कालीन कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने बिजली की राशनिंग कर दी। सभी स्कूलों-कालेजों को बंद रखने और दुकानों को शाम छह बजे तक खोलने के आदेश दिए गए। घरों-दफ्तरों में भी एसी न चलाने संबंधी हिदायतें और चांदनी रात के समय स्ट्रीट लाइटें बंद रखने के निर्देश दिए गए।

दूसरी, भारी बिजली कट के चलते लोगों की एक ही मांग रहती कि चाहे दस रुपये यूनिट दे दो, पर बिजली दे दो। तत्कालीन अकाली-भाजपा गठबंधन ने इसी मुद्दे को उभारा और सत्ता में आने पर 24 घंटे बिजली देने का वादा किया। लोगों ने उस पर विश्वास करके कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया। तीसरी, अकाली-भाजपा गठबंधन ने सत्ता संभालते ही बिजली पर सबसे पहले काम किया। पता चला कि थर्मल प्लांट लगाने के लिए तो सरकार के पास पैसे ही नहीं हैं। तय हुआ कि निजी क्षेत्र से लगवाएंगे। उनसे 2.86 रुपये और 2.89 रुपये प्रति यूनिट पर बिजली खरीद का सौदा करके 20 हजार करोड़ रुपये का निवेश करवाकर प्लांट लगवाए गए। इससे बिजली की समस्या खत्म हो गई।

तत्कालीन अकाली-भाजपा सरकार ने दावा किया कि पंजाब को पावर सरप्लस कर दिया गया है, पर विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने महंगी बिजली को मुद्दा बनाना शुरू कर दिया। उसने सत्ता में आने पर तीनों समझौतों को रद करने की बात कही। बिजली फिर मुद्दा बन गई और अकाली-भाजपा गठबंधन के हाथों से सत्ता जाती रही, लेकिन कांग्रेस ने अपनी सत्ता के इन साढ़े चार वर्षो में न तो बिजली समझौतों को रद करने संबंधी कोई कदम उठाया और न ही विधानसभा में यह बताया कि बिजली महंगी क्यों पड़ रही है। इस साल जब मानसून फेल हो गया तो सरप्लस बिजली के दावे भी धरे रह गए। लिहाजा बिजली एक बार फिर चुनावी मुद्दा है।

राजनीतिक दबाव के चलते कैप्टन सरकार ने तीनों थर्मल प्लांटों को एग्रीमेंट के अनुसार निर्धारित दरों पर बिजली उपलब्ध न करवाने संबंधी नोटिस जारी कर दिया है। कहा है कि क्यों न करार समाप्त कर दिए जाएं। प्लांटों को अभी जवाब देना है, लेकिन इसी बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि एग्रीमेंट को रद करने के बाद इन थर्मल प्लांटों का क्या होगा? विभाग के एक सीनियर अधिकारी का कहना है कि एग्रीमेंट में साफ है कि सरकार अगर इनको तोड़ती है तो उसे ये थर्मल प्लांट टेकओवर करने होंगे। अब सवाल यह है कि क्या सरकार बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करके इनको टेकओवर कर सकती है कि नहीं? एग्रीमेंट में एक बात और है कि इन थर्मल प्लांटों में पैदा होने वाली बिजली की सौ फीसद खरीद राज्य सरकार करेगी। अगर एग्रीमेंट रद कर दिए जाते हैं और ये प्लांट ओपन मार्केट में बिजली बेचते हैं तो उस सूरत में पंजाब अपनी जरूरतें कैसे पूरी करेगा।

पावरकाम के पूर्व चेयरमैन बलदेव सिंह सरां का कहना है कि पिछले वर्षो में हमने अपनी ट्रांसमिशन क्षमता को बढ़ाने के लिए ज्यादा काम नहीं किया। हम बाहरी राज्यों से बिजली खरीद करना भी चाहें तो 7,500 मेगावाट से ज्यादा नहीं खरीद सकते, क्योंकि इससे ज्यादा बिजली पंजाब में लाने का हमारे पास इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। बिजली प्लांटों के बंद होने की सूरत में क्या किसी राजनेता ने सोचा है कि अगली गíमयों में बिजली न मिलने की स्थिति में क्या होगा? न हमारे पास खुद की इतनी बिजली है कि हम जरूरतें पूरी कर सकें और न ही हम बाहर से खरीदने की स्थिति में हैं।

सस्ती बिजली के दावों का एक ‘महंगा’ सच भी है। सुखबीर बादल दावा करते हैं कि उन्होंने तलवंडी साबो और राजपुरा थर्मल प्लांटों से 2.86 रुपये और 2.89 रुपये प्रति यूनिट पर बिजली खरीदी, जो देश में सबसे सस्ती है। यह सच तो है, लेकिन आधा। प्लांटों से मिलने वाली बिजली का रेट दो भागों में बंटा हुआ था। पहला फिक्स चार्जेस और दूसरा एनर्जी चार्जेस।

एनर्जी चार्जेस में कोयले की कीमत, ढुलाई, गुणवत्ता आदि शामिल होते हैं, जबकि फिक्स चार्जेस का मतलब है कि अगर समझौते के अनुसार बिजली की खरीद नहीं की जाती तो उस बिजली का न्यूनतम दर पर पैसा देना होगा, जो उपयोग में नहीं लाई गई। इन दोनों प्लांटों को कोयला झारखंड से मिलना था, लेकिन वहां से नहीं मिला। लिहाजा ओडिशा में खान आवंटित की गई जिस कारण रेलवे का भाड़ा बढ़ गया और उसकी क्वालिटी भी दोयम दर्जे की थी, लेकिन तत्कालीन अकाली-भाजपा सरकार ने इन सभी तथ्यों को छिपा लिया। असल में बिजली 4.15 रुपये प्रति यूनिट से लेकर 5.55 रुपये प्रति यूनिट पड़ी। इसके अलावा और भी कई तथ्य हैं जिन्हें छिपाया गया। इस तरह बिजली को लेकर सियासत होती रही जिससे नुकसान राज्य का हुआ है।

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