चीन और पाकिस्तान के रुख को देखते हुए तालिबान के हाथों में परमाणु बम जाने का खतरा

इन दिनों भौगोलिक स्तर पर हो रही तमाम हलचलों ने दुनिया को काफी परेशान कर रखा है। एक मसला खत्म होता नहीं है कि कोई दूसरी बड़ी मुसीबत सामने दिखाई देने लगती है। अफगानिस्तान पर 20 साल बाद तालिबान के दोबारा कब्जे की खबरों से उठा तूफान अभी थमा नहीं है कि एक नया दावा किया जा रहा है कि उत्तर कोरिया ने प्रतिबंधों की फिक्र छोड़ते हुए अपने एक परमाणु रिएक्टर-यंगब्यन को फिर से शुरू कर दिया है। इस रिएक्टर में एटमी हथियारों के लिए प्लूटोनियम तैयार किया जाता है। उपग्रहों से मिली तस्वीरों का हवाला देते हुए अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में दावा किया है कि उत्तर कोरिया के इस रिएक्टर में जुलाई से परमाणु गतिविधियां शुरू की जा चुकी हैं।

भारत को चिंतित करने वाली एक बड़ी खबर यह है कि चीन के पश्चिमी प्रांत गांझू के यूमेन शहर के पास रेगिस्तान में सौ से अधिक (119) मिसाइल साइलोज (मिसाइल रखने के ठिकाने) बनाए जा रहे हैं। इन ठिकानों का इस्तेमाल तरल ईंधन वाली अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों को रखने के लिए किया जाना है। दोनों मुल्कों के बीच हाल के वर्षो में तनातनी का जो माहौल रहा है, उसमें यह खबर बेचैन करने वाली है। चूंकि भारत खुद परमाणु संपन्न देश है, ऐसे में शत्रु पड़ोसियों से मुकाबले की तैयारी के लिए इसे भी इसी तरह के परमाणु इंतजामों के बारे में सोचना और तैयार होना पड़ता है। वहीं अब तालिबान को लेकर भी कुछ ऐसी ही आशंकाएं चर्चा में हैं। कुछ आकलन कह रहे हैं कि चीन और पाकिस्तान का दुलारा तालिबान परमाणु हथियारों तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश कर सकता है।

यदि ऐसा हुआ तो एटमी हथियारों तक किसी आतंकी नेटवर्क की पहुंच और कब्जे का यह पहला मामला बन सकता है। ऐसे में दुनिया का क्या अंजाम हो सकता है? इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। उधर वर्ष 2009 में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने देश से बाहर कर चुके उत्तर कोरिया के तानाशाह शासक किम जोंग उन की अमेरिका के साथ चलने वाली सतत कहासुनी से पूरा विश्व परिचित है। तीन वर्ष पहले 2018 में किम जोंग उन ने अमेरिका को ललकारते हुए कहा था कि एक न्यूक्लियर बटन उनकी टेबल पर मौजूद है और उनका हाथ उस पर रहता है। तब डोनाल्ड ट्रंप ने भी उन्हीं की भाषा में जवाब दिया था कि उनका न्यूक्लियर बटन भी काम करता है और ज्यादा बड़ा (ताकतवर) है। एटमी जंग के प्रतीक के रूप में गढ़े गए ‘न्यूक्लियर बटन’ पर हुए जुबानी जंग से उस वक्त भी यह आशंका पैदा हो गई थी कि उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच पैदा हुई तनातनी कोई बड़ा रूप न ले ले।

चीनी माल और सोच की कोई गारंटी नहीं : कुछ ही महीने पहले एक अमेरिकी समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट में दावा किया गया था कि चीन के यूमेन शहर के पास रेगिस्तान में सौ से अधिक मिसाइल साइलोज (ठिकाने) बनाए जा रहे हैं। इन ठिकानों का इस्तेमाल तरल ईंधन वाली अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों को रखने के लिए किया जाना है। ऐसी मिसाइलें परमाणु हथियारों से लैस होती हैं। ये अत्यधिक ऊर्जा की मदद से लंबी दूरी तक मार कर सकती हैं। इन ठिकानों का महत्व यह है कि इनमें रखी जाने वाली मिसाइलों की न सिर्फ देखभाल और मरम्मत आसानी से हो जाती है, बल्कि यहीं से उन्हें निशाने पर दागा भी जा सकता है। इन ठिकानों के निर्माण को चीन की परमाणु नीति में उल्लेखनीय बदलाव के रूप में दर्ज किया गया है।

एक ही बार में कई परमाणु हथियार ले जाने में समर्थ ये मिसाइलें भारत ही नहीं, अमेरिका तक मार कर सकती हैं। वैसे तो ऐसी मिसाइलों के निर्माण को परमाणु प्रतिरोध (डिटरेंट) का जरिया माना जाता है। यानी इनकी मौजूदगी के आधार पर या इनका भय दिखाकर कोई देश दुश्मन देशों से ऐसे हमलों को रोककर रखने में कामयाब हो जाता है, लेकिन चीन के हालिया रुख को देखकर इसकी गारंटी नहीं रह गई है कि वह इन परमाणु मिसाइलों का उपयोग सिर्फ प्रतिरोध के लिए करना चाहता है। इसका अर्थ यह लगाया जा रहा है कि चीन अब ऐसी प्रतिस्पर्धा वाली नीति को अपना रहा है जिससे दुनिया में परमाणु हथियारों को लेकर असंतुलन वाली स्थिति बन सकती है। न्यूनतम प्रतिरोध की परमाणु नीति से हटते हुए परमाणु हथियारों का जखीरा बढ़ाने की उसकी नीति न्यूक्लियर ट्रायड (जमीन, आसमान और समुद्र से परमाणु हथियार दागने की क्षमता) विकसित करने की है। इससे उसके रुख में आई आक्रामकता का पता चल रहा है। अब चूंकि चीन अपनी सेना का आधुनिकीकरण कर रहा है, ऐसे में काफी संभावना है कि उसके परमाणु हथियारों की संख्या मौजूदा संख्या के मुकाबले दोगुनी हो जाए।

आखिर किसने भड़काई एटमी रेस : उत्तर कोरिया, तालिबान और पाकिस्तान में परमाणु हथियारों की होड़ संबंधी आशंकाओं से जुड़ा अहम सवाल यह है कि परमाणु हथियारों की नई होड़ पैदा करने में क्या सिर्फ चीन की ही भूमिका है। आकलन कहता है कि अमेरिका के पास आज भी 3,800 परमाणु हथियार हैं। इनमें से 1,750 हथियार विभिन्न मोर्चो पर तैनात हैं। ध्यान रहे कि दुनिया में सबसे पहले परमाणु शक्ति संपन्न होने वाला अमेरिका अकेला ऐसा मुल्क है, जिसने पहली और आखिरी बार परमाणु हथियारों का इस्तेमाल (हिरोशिमा-नागासाकी में) किया था। दावा किया जाता है कि पिछले 75 वर्षो में अमेरिका ने कुल 66,500 परमाणु हथियार बनाए, जिनमें से कई हजार परमाणु हथियार विभिन्न संधियों के तहत नष्ट किए गए। इसके अलावा करीब दो हजार परमाणु हथियारों को अमेरिका रिटायर कर चुका है। तत्कालीन सोवियत संघ (आज रूस) भी परमाणु हथियारों के मामले में अमेरिका से पीछे नहीं रहा। सोवियत संघ ने अमेरिका से चार साल बाद 1949 में अपना पहला परमाणु परीक्षण करने के बाद के वर्षो में हजारों परमाणु हथियार जमा कर लिए। वर्ष 1986 में सोवियत संघ भी चालीस हजार से अधिक परमाणु हथियारों के जखीरे पर बैठा था। हालांकि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद रूस ने इन हथियारों की संख्या घटाई और इन्हें 6,300 तक ले आया। फिलहाल दावा है कि रूस ने करीब 1,570 परमाणु हथियार तैनात कर रखे हैं, जबकि 2,700 हथियार रिजर्व रखे गए हैं।

भारत की नीति सबसे भरोसेमंद : अपना पहला परमाणु परीक्षण 1974 में करने वाले हमारे देश भारत ने अब तक व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) या परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) का अनुमोदन भले नहीं किया है, लेकिन अपने 150 परमाणु हथियारों का किसी देश पर पहले इस्तेमाल नहीं करने (नो फस्र्ट यूज) की नीति पर कायम है। भारत की नीति दुनिया में भरोसेमंद मानी जाती है, लेकिन 1998 में परमाणु परीक्षण करने वाले पड़ोसी पाकिस्तान (जिसके पास करीब 160 एटमी हथियार होने का अनुमान है) की मंशा पर किसी को ज्यादा यकीन नहीं है। बात-बात पर पाकिस्तान के मंत्री पाव-पाव भर के एटमी हथियारों के इस्तेमाल की धमकी भी देते रहे हैं। यही नहीं, आशंका यह भी है कि पाकिस्तान अगले दस वर्षो में और परमाणु हथियार जमा करने की नीति पर चल रहा है और वह प्लूटोनियम और यूरोनियम आधारित परमाणु हथियार तैयार करने में जुटा हुआ है। अब उसके तालिबान से खुले संबंध इस परमाणु खतरे को कई गुना बढ़ाते प्रतीत हो रहे हैं। ऐसे परमाणु संपन्न पड़ोसियों को देखते हुए भारत की परमाणु नीति वक्त की जरूरत प्रतीत होती है। हालांकि चीन की नजरों में उसका मुकाबला अब अमेरिका-रूस से है।

चीनी शासक यह कहते भी रहे हैं कि उनके पास रूस-अमेरिका से काफी कम संख्या में परमाणु हथियार हैं। ऐसे में चीन को पश्चिमी देशों की राय की परवाह किए बिना अपनी सुरक्षा जरूरतों के हिसाब से हथियार बनाने चाहिए। चूंकि ज्यादातर देश शक्ति संतुलन साधने के लिए परमाणु हथियारों की जरूरत की व्याख्या अपने मन मुताबिक करते रहे हैं इसलिए निकट भविष्य में इसकी संभावना कम ही लगती है कि इस सिलसिले पर कोई प्रभावी रोक लग सकेगी।

आखिर कब तक चलेगी एनएसजी की धौंस: कहने को तो दूसरे पदार्थो के मुकाबले रेडियोएक्टिव पदार्थ, जैसे कि न्यूक्लियर रिएक्टर में इस्तेमाल होने वाले यूरेनियम को आसानी से बेचा या खरीदा नहीं जा सकता है। बात चाहे शांतिपूर्ण इस्तेमाल की हो, यूरेनियम खरीदने के लिए इसके सप्लायर ग्रुप के पास अर्जी लगानी पड़ती है, क्योंकि इसका कोई खुला बाजार नहीं है। असल में न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने की तकनीक 46 देशों के समूह-न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) के पास है, जो कि औद्योगिक देशों द्वारा तय की गई नीतियों के तहत चलता है।

भारत को अपने रिएक्टरों के लिए ईंधन (यूरेनियम) हासिल करने के लिए इसी समूह के पास जाना पड़ता है। इस नीति की आलोचना इसीलिए ज्यादातर विकासशील देश करते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी ऊर्जा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी इस ग्रुप के सामने झुकना पड़ता है। ऐसे में किसी भी देश के लिए एटमी हथियार बनाने के लिए यूरेनियम हासिल करना और भी टेढ़ी खीर है। ऐसी स्थिति में मित्र देश ही यह ईंधन और तकनीक चोरी-छिपे हासिल कराते हैं, जैसे उत्तर कोरिया के मामले में इसका आरोप चीन पर मढ़ा जाता है। पर एटमी हथियारों का एक पक्ष यह भी है कि शीतयुद्ध काल खत्म होने के बाद इन हथियारों का ज्यादा बड़ा उद्देश्य एक-दूसरे को धमकी देना हो गया है।

भारत अपने एटमी हथियारों का जखीरा दिखाकर पड़ोसियों को शांत रखने की कोशिश करता है तो पाकिस्तान इसकी अकड़ दिखाता है कि भारत यह न भूले कि पाक अब एक परमाणु-संपन्न देश है। लेकिन ये हथियार अपने भीतर एक भयावह सच भी छिपाए रखते हैं। वह यह कि अगर कभी ऐसी नौबत आ गई कि तालिबान सरीखे आतंकी गुट या किसी नकचढ़े मुल्क ने कहीं इनका इस्तेमाल कर लिया तो आज के हथियार इतने संहारक हैं कि न केवल एक ही एटम बम से लाखों जिंदगियां एक झटके में खत्म हो जाएंगी, बल्कि पर्यावरण और आने वाली पीढ़ियों को भी भारी नुकसान होगा। ऐसी स्थिति में इस्तेमाल नहीं किए जाने की सूरत में भी एटमी हथियार पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा संहारक हैं।

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