उदासियों में मेहरबान हुए राजहंस
बॉम्बे नैचरल हिस्ट्री सोसाइटी के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले 25 प्रतिशत ज्यादा फ्लेमिंगो पक्षी इस साल भारत आए हैं। ये फ्लेमिंगो गुजरात के कच्छ के रण और राजस्थान की सांभर झील से आगे बढ़कर मुम्बई पहुँच जाते हैं। जहाँ एक ओर कोरोना के बढ़ते संक्रमण और निरंतर लॉकडाउन के चलते देश के तमाम इलाकों की इंसानी बस्तियों-शहरों और महानगरों में वीरानी छायी हुई थी लेकिन इन तस्वीरों में दिखाई दे रहा यह मनमोहक नजारा जो सुकून दे रहा है। यह दृश्य है गुजरात के कच्छ के रण का। यहां हर साल गुलाबी रंग के फ्लेमिंगो सहित कई विदेशी पक्षी प्रवास पर आते हैं।
आपको बताते चलें कि फ्लेमिंगो अफ्रीकी और यूरोपीय देशों के पक्षी हैं। लेकिन मौसम की अनुकूलता इन्हें हजारों मील दूर से खींचकर हमारे यहां ले आती है। कोरोना वायरस के गुजरात के कच्छ में बड़ी संख्या में फ्लेमिंगो पक्षियों के आने से पूरा माहौल गुलाबी हो गया। पिछले अन्य वर्षों के मुकाबले इस साल कहीं ज्यादा राजहंस आए हैं। लॉकडाउन के बीच सामान्य तौर पर सार्वजनिक स्थानों पर बड़ी संख्या में पक्षियों और जानवरों का आगमन देखा जा रहा है। फ्लेमिगों पक्षियों का बड़ी संख्या में कच्छ में उतरना राहत की खबर है।
फ्लेमिंगो के शरीर का रंग गुलाबी और नारंगी होता है। इनमें एक खास बात यह भी है कि भोजन में बीटा-कैरोटिन नामक तत्व की अधिकता होने पर इनके शरीर का रंग गाजर की तरह हो जाता है और यदि इन्हें कैरोटिन की प्रचुर मात्रा नहीं मिल पाए तो फिर शरीर का रंग हल्का सफेद सा हो जाता है। जाड़े की आहट जैसे ही होती है ये विदेशी मेहमान ख़ास तौर महाराष्ट्र और गुजरात में अपना डेरा जमा लेते हैं। गुजरात में इनकी मनपसंद जगह है कच्छ का रण।
प्रवासी पक्षी फ्लेमिंगो, जिसे राजहंस भी कहा जाता है। इन विदेशी मेहमानों को सबसे पहले भारत के मारवाड़ की फिजां कुछ ज्यादा ही रास आती है। पहले पाली की बांडी नदी में डेरा डालते हैं। उसके बाद फ्लेमिंगो प्रजाति के ये प्रवासी परिंदे मानसून से पहले प्रजनन करने के लिए कच्छ की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक ये फ्लेमिंगो गुजरात के कच्छ के रण और राजस्थान की सांभर झील से आते हैं। कुछ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और इजराइल से भी माइग्रेट करके भारत पहुंचते हैं। कुछ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और इजराइल से भी माइग्रेट करके भारत पहुंचते हैं। अप्रैल के पहले सप्ताह में ही तक़रीबन 1.5 लाख से अधिक पक्षियों को यहां देखा गया था।
प्रवासी पक्षी फ्लेमिंगो, जिसे राजहंस भी कहा जाता है। इन विदेशी मेहमानों को सबसे पहले भारत के मारवाड़ की फिजां कुछ ज्यादा ही रास आती है। पहले पाली की बांडी नदी में डेरा डालते हैं। उसके बाद फ्लेमिंगो प्रजाति के ये प्रवासी परिंदे मानसून से पहले प्रजनन करने के लिए कच्छ की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। इनके भारत आने की वजह कुछ ख़ास होती है। जाड़े में इन प्रवासी पक्षियों के यहां बर्फ जम जाती है और ऐसी कंपकंपाने वाली ठंड के कारण इनका आहार बनने वाले जीव या तो मर जाते हैं या जमीन में दुबक कर शीत-निद्रा में चले जाते हैं, जिससे वे सर्दियों के समाप्त होने के बाद ही जागते हैं।
ऐसी स्थिति में इन पक्षियों के लिए आहार ढूंढना और जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है। इसलिए वे भारत जैसे गर्म देशों में चले आते हैं, जहां बर्फ नहीं जमती और उन्हें आहार भी अच्छे से मिल जाते हैं।
कच्छ पहुंचे राजहंस पक्षी घंटों तक एक टांग पर ही खड़े रहते हैं। जानकारों की मानें तो ये परिंदे करीब पांच घंटे तक एक टांग पर खड़े रहते हैं। साथ ही इस मुद्रा में ये नींद भी ले लेते हैं। राजहंस के जोड़े की एक खासियत ये भी है कि ये अपने जीवन साथी के साथ भोजन बांटकर खाते हैं। सबसे अच्छी बात है कि नर हो या मादा, ता उम्र ये अपने साथी के साथ रहते हैं।
लम्बी और खूबसूरत टांगों और गुलाबी रंग की आकर्षक चोंच वाले इन परिंदों को राजहंस के अलावा हंसावर के नाम से भी जाना जाता है। एकमात्र ये ही प्रवासी परिंदे हैं, जो सबसे बाद में यहां आते हैं। करीब चार से पांच फीट की ऊंचाई वाले ये परिंदे कच्छ के पक्षी प्रेमियों को भी खासा लुभा रहे हैं। बसंत पंचमी यानी फरवरी-मार्च तक यहां से वापस अपने देश या फिर इससे आगे चले जाते हैं।
हालांकि माइग्रेशन को आसान बनाने के लिए ये पक्षी अपने शरीर को अनुकूलित कर लेते हैं, पर फिर भी इन्हें अपने इस सफर में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे पर्याप्त भोजन नहीं मिलने से भुखमरी के शिकार होना। हवा में उड़ने के दरम्यान ऊंची बिल्डिंग या हवाईजहाज से टक्कर होना, खराब मौसम और तूफान भी इन्हें घायल कर देते हैं या राह से भटका देते हैं। फिलहाल मुम्बई में राजहंसों का डेरा है। जून के महीने में राजहंसों का काफिला दिल्ली आएगा। तैयार हो जाईये, इन मेहमानों को करीब से देखने का मौक़ा मिलेगा।